संजय उवाच: यह समय ‘शब्द हिंसा’ का है — जिसमें भाषा का इस्तेमाल विचारों के आदान-प्रदान के बजाय अपमान, द्वेष और मानसिक हमले के लिए किया जा रहा है। न्यूज़ मीडिया में अब संवाद की गरिमा नहीं रह गई है। बहस और बहस के नाम पर होने वाले टीवी कार्यक्रमों में मर्यादा समाप्त हो गई है। इससे समाज में कटुता और ध्रुवीकरण बढ़ रहा है।

सूचना और खबर में अंतर समझना होगा:
मीडिया का काम केवल सनसनी फैलाना नहीं, बल्कि जिम्मेदार सूचना देना है। हर बात को ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ बनाकर प्रस्तुत करने से पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठते हैं।

हर व्यक्ति नहीं हो सकता पत्रकार:
सिर्फ पत्रकारिता की डिग्री होने से कोई पत्रकार नहीं बनता। संवेदनशीलता, अध्ययन और संतुलन की समझ जरूरी है। आज कई मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर बिना प्रशिक्षण और अनुभव के लोग पत्रकार बन गए हैं, जिससे भाषा की गरिमा समाप्त हो रही है।

समाज को संयम और संस्कार चाहिए:
शब्दों का चयन, विचारों की प्रस्तुति और बहस की भाषा सभ्यता की पहचान होनी चाहिए। मीडिया को समाज के सकारात्मक मूल्यों को आगे बढ़ाने वाला माध्यम बनना चाहिए, न कि तोड़ने वाला।

जरूरी है भारतीयकरण:
मीडिया को भारतीय जीवन दृष्टि और मूल्यों से जोड़ने की आवश्यकता है। उसे अपने दायित्वों को समझना होगा — सिर्फ टीआरपी की दौड़ नहीं, समाज निर्माण की भूमिका भी निभानी होगी।