Patna: बिहार में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले निर्वाचन आयोग द्वारा शुरू की गई विशेष मतदाता सूची पुनरीक्षण प्रक्रिया को लेकर सियासी माहौल गर्म हो गया है। 25 जून से 25 जुलाई तक चलने वाली इस प्रक्रिया में बूथ लेवल अधिकारियों द्वारा घर-घर जाकर मतदाताओं की जांच की जा रही है और उनसे भारतीय नागरिकता तथा 18 वर्ष की उम्र से ऊपर होने के प्रमाण मांगे जा रहे हैं। विपक्षी दलों ने इस कदम पर कड़ा ऐतराज जताया है और इसे NRC जैसी कवायद बताते हुए गरीब, दलित, पिछड़े, प्रवासी और अल्पसंख्यक मतदाताओं को सूची से बाहर करने की साजिश करार दिया है। विपक्ष का कहना है कि इस प्रक्रिया से राज्य के करीब 2 से 3 करोड़ लोगों के नाम मतदाता सूची से हट सकते हैं। कांग्रेस, राजद, वामदल, टीएमसी और AIMIM सहित इंडिया गठबंधन के नेताओं ने मुख्य चुनाव आयुक्त को ज्ञापन सौंपते हुए प्रक्रिया की संवैधानिकता और तात्कालिकता पर सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि जब 2003 के बाद से अब तक चुनाव इसी मतदाता सूची के आधार पर हुए हैं, तो अचानक इस तरह की कवायद का औचित्य क्या है।

इस बीच, चुनाव आयोग ने सफाई दी है कि यह पुनरीक्षण कार्य संविधान के अनुच्छेद 326 और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत आवश्यक है ताकि मतदाता सूची को शुद्ध और निष्पक्ष बनाया जा सके। मुख्य चुनाव आयुक्त ग्यानेश कुमार ने भरोसा दिलाया है कि किसी भी पात्र नागरिक को मतदाता सूची से बाहर नहीं किया जाएगा और इसके लिए एक लाख से अधिक वालंटियर्स को भी लगाया गया है। आयोग का यह भी कहना है कि यह पहल महाराष्ट्र और लोकसभा चुनावों में सामने आए फर्जी वोटिंग और डुप्लीकेट वोटर ID के मामलों की पृष्ठभूमि में की गई है। हालांकि, एनडीए के सहयोगी दल जेडीयू और एलजेपी (रामविलास) ने भी इस प्रक्रिया की समयसीमा और व्यवहारिकता को लेकर चुपचाप चिंता जाहिर की है। बाढ़, गरीबी और दस्तावेजों की कमी जैसी चुनौतियों के बीच केवल 30 दिनों में यह कार्य पूरा करना असंभव जैसा दिख रहा है।

कुल मिलाकर, चुनाव आयोग मतदाता सूची को पारदर्शी बनाने की बात कर रहा है, जबकि विपक्ष इसे वोटरों की “वोटबंदी” और जनसांख्यिकीय संतुलन को बिगाड़ने का प्रयास मान रहा है। यह विवाद आने वाले समय में कानूनी और राजनीतिक दोनों मोर्चों पर और तेज हो सकता है।